'आह, ...पानी।' सीमा पर शत्रु सेना की गतिविधियों पर नजर रखे कैप्टन रंजीत के कानों में ये शब्द पड़ते ही वे चौंक उठे। दूरबीन को आँखों के सामने से हटाते हुए वे
आवाज की दिशा का अंदाजा लगाने लगे।
'पा...नी।' चंद क्षणों के अंतराल के पश्चात वही आवाज पुनः सुनाई पड़ी।
उस कंपित स्वर की व्यथा पहचानने में कैप्टन को जरा भी देर न लगी। उन्होंने एक सिपाही को आदेश देते हुए कहा, 'जाकर देखो, वहाँ नीचे कौन है?'
हुक्म की तामील के विशेषज्ञ सिपाही ने तुरंत आज्ञा का पालन किया। वह कश्मीर की पाक सीमा से लगी उस छोटी सी पहाड़ी से उतरकर इधर-उधर देखते हुए सामने की ओर बढ़ चला।
बादलों से घिरे होने के कारण उस समय दोपहर भी रात जैसी प्रतीत हो रही थी। पर उसकी सर्चलाईट से तेज आँखें उस समय भी झाड़ियों के आर-पार देखने में पूर्णतः सक्षम
थीं।
तीसरी बार जब उसने 'पानी' की आवाज सुनकर स्रोत की ओर नजर दौड़ाई, तो आश्चर्य से उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं। सामने लगभग दस फिट की दूरी पर एक कटा हुआ सिर पड़ा
था। पानी की आवाज उसी के मुँह से आ रही थी। आश्चर्य और रहस्य की उस प्रतिमूर्ति को देखकर सिपाही का शरीर जड़ हो गया। उसकी समझ में नहीं आया कि वह क्या करे, क्या
न करे।
'क्या हुआ तेजसिंह?' आवाज सुनकर सिपाही ने जब पीछे मुड़कर देखा, तो दो सिपाहियों के साथ कैप्टन को अपने पीछे मौजूद पाया।
भय के कारण सिपाही के मुँह से कोई आवाज न निकली। उसने हाथ से इशारे से कैप्टन का ध्यान उस ओर आकृष्ट कराया। हौले-हौले कदम बढ़ाते हुए कैप्टन उस सिर के पास
पहुँचे। उसे देखते ही वे चिल्ला पड़े, 'अरे, ये तो शाहिद है, मेरे बचपन का दोस्त। पर ये यहाँ... इस हालत में...?'
कैप्टन का दिमाग तेजी से घूमने लगा। शाहिद पिछले कई दिनों से गायब था। फिर अचानक यहाँ उसका सिर...? और वह भी बोलता हुआ...? कहीं किसी ने उसकी हत्या तो नहीं...?
पर कौन कर सकता है ऐसा? यहाँ तो चारों ओर सेना का सख्त पहरा है। फिर ये सिर यहाँ कैसे आया? ...और ये सिर बोल कैसे रहा है? बिना धड़ के सिर भला कैसे बोल सकता
है...? क्या उसका जिस्म भी यहीं कहीं आस-पास...?
रंजीत की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। रहस्य के चक्करदार घेरों में उनका दिमाग उलझ कर रह गया। जैसे चारों ओर से सवाल घेरते जा रहे हों और शत्रु के सामने कभी हार
न मारने वाले कैप्टन उनके सामने अपने हथियार डालते जा रहे हों।
अपने इस महारथी को बुद्धि के मैदान में पिछड़ते देख, प्यासे की प्यास बुझाने के लिए जल देवता नन्हीं-नन्हीं बूँदों के रूप में धरती पर अवतरित होने लगे।
शाहिद के मुँह में पनी की बूँदें पड़ते ही उसमें पुनः जान आ गई। एक मुद्दत से प्यासी उसकी जबान पानी की बूँदों को जल्दी-जल्दी गले के नीचे उतारने लगी। यह सब
देखकर कैप्टन सहित तीनों सिपाही हैरान व परेशान थे। उनकी हैरानी के साथ ही साथ प्रतिपल बढ़ती जा रही थी, वर्षा की रफ्तार। और धीरे-धीरे वह इतनी तेज हो गई कि पानी
में खड़े रहना मुश्किल हो गया। पर फिर भी सभी लोग अपनी जगह स्थिर खड़े थे। जैसे उनके ऊपर कोई जादू कर दिया गया हो।
पर यह क्या? तभी वहाँ पर एक हाथ और प्रकट हो गया। वातावरण में रहस्य की मात्रा बढ़ गई। उपस्थित लोगों के चेहरों पर भय की परछाई स्पष्ट नजर आने लगी।
फिर एक पैर, एक हाथ और प्रकट हुए। बिलकुल किसी जादू की तरह। जैसे-जैसे जादू टूटता जा रहा था, अंगों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। अगले ही क्षण जिस्म का शेष भाग
भी प्रकट हो गया। यानी कि जादू पूरी तरह से टूट चुका था। और इसका सारा श्रेय जाता था मूसलाधार बरसात को। शाहिद को सही-सलामत देखकर चारों लोगों की जान में जान
आई। कैप्टन रंजीत को यह समझते देर न लगी कि यह शाहिद के किसी नए आविष्कार का ही कमाल है।
'इसकी हालत बहुत खराब है। जल्दी से इसे लेकर बैरक में चलो।' कैप्टन ने सैनिकों को आदेश दिया। तीनों सैनिकों ने झटपट शाहिद को उठाया और कैप्टन के साथ वापस लौट
पड़े।
बैरेक के पास ही टेंट से घिरा हुआ एक सैनिक अस्पताल था, जो समय-कुसमय सैनिकों के काम आता था। डॉक्टर ने शाहिद के नीले पड़ते शरीर को देखकर यह स्पष्ट कर दिया कि
इनके शरीर में किसी तेज जहर का प्रवेश हो चुका है। अब इन्हें बचाना नामुमकिन है। हाँ, इस बात के लिए प्रयत्न किया जा सकता है कि इन्हें अधिक के अधिक समय तक
जीवित रखा जा सके।
अपने बचपन के दोस्त शाहिद के बारे में सोचते-सोचते कैप्टन रंजीत टेंट से बाहर निकल कर एक कुर्सी पर बैठ गए। शाहिद की जिंदगी की तमाम घटनाएँ किसी फिल्म की रील की
तरह उनकी आँखों के सामने घूमने लगीं।
कैप्टन रंजीत और शाहिद कश्मीर के डोडा जिले के रहने वाले हैं। एक ही मुहल्ले में दोनों के आस-पास घर थे। दोनों लोगों में बचपन से ही दोस्ती थी। वे लोग साथ खेलते
और साथ ही पढ़ते थे। यही कारण था कि अनजाने में लोग उन्हें भाई-भाई समझने की गलती कर बैठते थे।
शाहिद जब चार वर्ष का था, तभी एक बम विस्फोट में उसके पिता की मृत्यु हो गई थी। उसकी माँ ने उसे और उसकी छोटी बहन को किसी तरह लिखाया-पढ़ाया। वह शुरू से ही पढ़ने
में बहुत तेज था। विज्ञान हमेशा उसका प्रिय विषय रहा, जिसका प्रमाण उसने दसवीं की परीक्षा में पिच्चानबे प्रतिशत अंक ला कर दिया।
माँ, बहन के प्यार और पढ़ाई की लगन के कारण वह अपने पिता की मौत को जल्दी ही भूल गया। पर जैसे मुकद्दर से यह सब देखा न गया। एक दिन आंतकवादियों द्वारा छोड़ा गया
एक रॉकेट उसके घर पर आ गिरा। उस विस्फोट ने उसके जीवन का बचा-खुचा सुकून भी छीन लिया।
शाहिद उस समय किसी काम से बाजार गया था। लेकिन जब वह लौट कर आया, तो सन्न रह गया। माँ-बहन दोनों ही लोग हमेशा-हमेशा के लिए सो चुके थे। वह अपने घर में एकदम
अकेला रह गया। ऐसे मौके पर उसके चाचा ने उसे सहारा दिया। चाचा के पास रहकर ही उसने एम.एस.सी. की पढ़ाई पूरी की।
पर मुकद्दर का खेल यहीं पर खत्म नहीं हुआ। शाहिद के चाचा की गिनती शहर के धन्ना सेठों में होती थी। आतंकवादियों ने उनसे 10 लाख रुपयों की माँग की। उन्होंने
रुपया देने से साफ इनकार कर दिया। आतंकवादियों से उनकी 'न' बर्दाश्त नहीं हुई। एक दिन शाम के समय घात लगाकर उन्होंने उनका काम तमाम कर दिया। इस प्रकार शाहिद का
अंतिम सहारा भी हमेशा के लिए छिन गया।
अपने चाचा की मृत्यु को देखकर शाहिद बुरी तरह से हिल गया। उसने आतंकवादियों के उस गढ़ को नेस्तनाबूद करने का फैसला कर लिया, जहाँ पर उन्हें ट्रेंड किया जाता है।
शाहिद की इस प्रतिज्ञा को पूरी करने में उसके चाचा की दौलत ने महत्वपूर्ण रोल अदा किया। उसने अपने चाचा की संपत्ति को बेच दिया और दिल्ली चला गया। वहाँ पर उसने
एक मकान खरीदा और उसमें रिसर्च करने के लिए प्रयोगशाला की स्थापना की। उसके बाद वह अपने कार्य में जी-जान से जुट गया। उसका लक्ष्य था एक अनोखा और महान आविष्कार।
'सर, उन्हें होश आ गया है।' एक सिपाही ने कैप्टन को सूचना दी। जैसे किसी ने उन्हें नींद से जगा दिया हो। वे बड़बड़ाए, 'किसे होश आ गया?' लेकिन अगले ही क्षण उन्हें
सब कुछ याद आ गया। उन्होंने तुरंत अपनी गलती सुधारी, 'हाँ, चलो मैं चलता हूँ।' और फिर वे अस्थायी अस्पताल की परिधि में दाखिल हो गए।
अस्पताल के बेड पर शाहिद शांत भाव से लेटा हुआ था। उसके गौरवर्णीय जिस्म पर जहर की नीलिमा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती थी।
यूँ तो शाहिद ने अपनी जिंदगी में कई विस्फोट देखे और सहे थे, पर अब उसे उस विस्फोट का इंतजार था, जिसे देखकर उसकी जिंदगी का विस्फोट सार्थक होना था। पर जिंदगी
का विस्फोट कहीं उस विस्फोट से पहले न हो जाए, इसके लिए वह प्रतिपल अपने आप से जूझ रहा था।
'सर, इनके शरीर में जहर फैल चुका है। मेरी समझ में तो यह ही नहीं आ रहा कि ये अभी तक जिंदा कैसे हैं?' डॉक्टर ने धीरे से अपनी बात कही, 'पर, ये ज्यादा देर तक
जिंदा नहीं रह सकते। इसलिए आपको इनसे जो कुछ भी...' कहते हुए उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी।
'ठीक है, आप चिंता न करें। मैं देखता हूँ।' कैप्टन मुस्कराए।
'ओह, रंजीत तुम?' कैप्टन रंजीत को देखकर शाहिद के होंठ धीरे से हिले, 'ये बताओ टाइम क्या हुआ है?'
'6.20... पर क्यों, क्या हुआ?'
'ओह, अभी दस मिनट और सब्र करना है?' शाहिद ने निराशा में भरकर एक लंबी साँस ली।
'10 मिनट? इसका क्या मतलब है? तुम यहाँ कैसे पहुँचे? और तुम्हारा ये हाल कैसे हुआ?' कैप्टन ने एक ही साँस में कई सवाल पूछ डाले।
अपनी उखड़ी साँसों को सँभालने का प्रयास करते हुए शाहिद बोला, 'रंजीत, मैंने अपना बदला ले लिया है। मेरा मिशन पूरा हुआ।'
'बदला? मिशन? तुम क्या कह रहे हो?' कैप्टन रंजीत कुछ समझ नहीं पाए।
'मुझे और मेरे जैसे तमाम परिवारों को तबाह करने वाले आतंकवादियों का गढ़ कुछ समय बाद तबाह होने वाला है। चोरी से बनाए गए वे सभी अड्डे बमों के विस्फोट से इस कदर
बरबाद हो जाएँगे कि किसी और को तबाह करने के लायक नहीं रहेंगे।'
कहते-कहते शाहिद का मुँह क्रोध से लाल हो गया। कैप्टन रंजीत अपलक शाहिद की बातें सुन रहे थे। शाहिद ने कुछ देर रुक कर अपनी बात पुनः आगे बढ़ाई, 'तुम्हें मालूम
होगा रंजीत, मैं एक आविष्कार करना चाहता था...'
'हाँ, मैंने सुना तो था। लेकिन वह आविष्कार क्या था?'
'थोड़ा सब्र करो रंजीत। मरने से पहले मैं तुम्हें सब कुछ बताऊँगा...'
'तुम ठीक हो जाओगे शाहिद...' रंजीत ने उसे दिलासा दिया।
शाहिद धीरे से हँसा, 'मैं जानता हूँ कि मेरे शरीर में जहर अंदर तक समा चुका है और इसका कोई इलाज नहीं है। यह मेरे आविष्कार की ही देन है।'
'कैसा आविष्कार...?'
'देश के दुश्मनों से बदला लेने के लिए मैं एक ऐसा पदार्थ बनाना चाहता था, जो प्रकाश को पूरी तरह से सोख ले। ऐसे पदार्थ को जिस सतह पर लगा दिया जाए, वह पूरी तरह
से अदृश्य हो जाएगी। अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए मैंने दिन-रात एक कर दिए। इस काम में पूरे दस साल लग गए...।'
शाहिद लगातार बोलता जा रहा था। न जाने कहाँ से उसमें इतनी शक्ति आ गई थी। शायद उसकी आत्मशक्ति ही थी, जो उसे अभी तक जिंदा रखे हुए थी।
'दस साल की मेहनत के बाद मुझे सफलता मिली दो समस्थानिकों और दो समभारिकों को बहुत ऊँचे ताप पर संलयित करके मैं वह पदार्थ बनाने में सफल हो गया। लेकिन परीक्षण के
दौरान मुझे यह पता चला कि वह जहरीला हो गया है। शरीर की त्वचा के संपर्क में आते ही वह उसकी कोशिकाओं को नष्ट करने लगता है। हालाँकि वह पानी के द्वारा आसानी से
छूट जाता था, लेकिन पानी के साथ मिलकर वह एक विष में बदल जाता है। वही विष इस समय मेरे रोम-रोम में समाया हुआ है।'
अपनी टूट रही साँसों की डोर को थामने के लिए शाहिद एक पल रुका। फिर उसने अपनी बात आगे बढ़ाई, 'यह जानने के बाद भी कि उस पदार्थ को अपने शरीर पर लगाना मौत को दावत
देने के समान है, मैंने देश के दुश्मनों से बदला लेने के लिए उसे लगाना मंजूर कर लिया। मुझे गर्व है कि मैं अपना मिशन पूरा करने में सफल रहा। अब..., कुछ ही समय
बाद वे सब तबाह हो जाएँगे। ...लेकिन अफसोस, मैं उन्हें बरबाद होते हुए देख नहीं सकूँगा...।'
एकाएक रंजीत को कुछ ख्याल आया। वे शाहिद की बात काटकर बीच में ही बोल पड़े, '...लेकिन तुम्हें वे बम कहाँ से मिले और तुम आतंकवादियों के अड्डे तक कैसे पहुँचे?'
इससे पहले कि शाहिद उनकी बात का कोई जवाब देता, कहीं दूर एक जोरदार विस्फोट हुआ। विस्फोट से निकली ऊर्जा से सारा आसमान रोशनी में नहा गया। रोशनी की उस चमक को
देखकर शाहिद के चेहरे पर मुस्कान फैल गई। उसका चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा। विस्फोट की स्थिति का अंदाजा लगाने के लिए कैप्टन रंजीत टेंट से बाहर निकले।
पहले विस्फोट की कौंध अभी शांत भी न होने पाई थी कि एक अन्य विस्फोट से आसमान गूँज उठा। वह विस्फोट भी पहले वाले की तरह ही जबरदस्त और भयानक था। फिर तीसरा, चौथा
और पाँचवाँ। उनकी आवाज सुनकर जमीन ही नहीं, आसमान भी थर्रा उठा।
लेकिन कुछ क्षणों के बाद सब कुछ शांत हो गया और फिर से चारों ओर सन्नाटा छा गया। अँधेरे की गहरी चादर में लिपटा मौत सा सन्नाटा।
रंजीत के चेहरे पर एक अनचाही मुस्कान रेंग गई पर यह समय उस खुशी को व्यक्त करने का नहीं था। वे जल्दी से शाहिद के पास जा पहुँचे। उन्होंने अपना प्रश्न पुनः
दोहराया, 'शाहिद, तुम्हें वे बम कहाँ से मिले थे?'
पर शाहिद वहाँ था कहाँ? जीवन के अंतिम विस्फोट ने हमेशा-हमेशा के लिए उसके दुखों का अंत कर दिया था।